आलम-ए-बे-चेहरगी में कौन किस का आश्ना आज का हर लफ़्ज़ है मफ़्हूम से ना-आश्ना कौन होता है ज़माने में किसी का आश्ना लोग होना चाहते हैं ख़ुद ज़माना-आश्ना सोचता हूँ कौन सी मंज़िल है ये इदराक की ज़र्रा ज़र्रा आश्ना है पत्ता पत्ता आश्ना चाट जाती है जिन्हें सूरज की प्यासी रौशनी काश हो जाएँ किसी दिन वो भी दरिया-आश्ना तिश्नगी आई सराबों से गुज़र कर आब तक साहिल-ए-दरिया मगर अब तक है सहरा-आश्ना ज़ौक़-ए-ख़ुद-बीनी की तस्कीन-ए-अना के वास्ते कितने ही ना-आश्नाओं को बनाया आश्ना काश हो जाए तिरी आँखों पे ख़्वाबों का नुज़ूल काश हो जाए तिरा दिल भी तमन्ना-आश्ना कौन पहचानेगा हम को कौन पूछेगा मिज़ाज कौन है अपने सिवा 'क़ैसर' हमारा आश्ना