आलम-ए-रंग-ओ-नग़्मा में कैफ़ बहुत सही मगर बे-ख़ुद-ए-सैर-ए-काएनात अपनी तरफ़ भी इक नज़र उन की भी आँख हो गई जोश-ए-अलम से आज तर मैं ने उठाई क्यों निगाह आलम-ए-दर्द में उधर यूँ न पहुँच सकेगा तू उन की हरीम-ए-नाज़ में इश्क़ की तेग़-ए-तेज़ से अक़्ल से पहले जंग कर शक्ल-ए-हसीं दिखाए जा पर्दा-ए-दरमियाँ उठा शौक़ मिरा है पारसा इश्क़ मिरा है मो'तबर मेरे तमीज़-ए-शौक़ को एक ज़माना चाहिए तेरा लहू अभी है सर्द मेरी नवा है गर्म-तर आह-ए-शराब-ए-शौक़ का कैफ़ बहुत अजीब है वो हैं कि मुझ से बे-नियाज़ और मैं उन से बे-ख़बर तेरी फ़ुग़ाँ ने कर दिया सीना-ए-गुल को चाक-चाक 'अख़्तर'-ए-ख़ुश-नवा ख़मोश 'अख़्तर'-ए-ख़ुश-नवा ठहर