आमद है बहारों की कोई बात करे है महबूब मिरा मुझ से मुलाक़ात करे है आशिक़ को सरोकार नहीं कार-ए-जहाँ से दिल मेरा तमन्ना तिरी दिन-रात करे है है अपना जुनूँ इश्क़ की बदनामी का बाइ'स वो ग़ैर की महफ़िल में शिकायात करे है हाँ तुझ को वो फ़ुर्सत में बुलाएँगे बहुत जल्द दरबाँ तिरे आशिक़ से यही बात करे है जब ख़त्म हुई मय तो निगाहों से पिलाया साक़ी तिरे रिंदों पे इनायात करे है किस शान से मक़्तल को चला आशिक़-ए-सादिक़ इस शहर में 'अख़्तर' की हर इक बात करे है