आन पहुँचे हैं ये कहाँ हम लोग अब ज़मीं हैं न आसमाँ हम लोग कल यक़ीं बाँटते थे औरों में अब हैं ख़ुद से भी बद-गुमाँ हम लोग किन हवाओं की ज़द में आए हैं हो गए हैं धुआँ धुआँ हम लोग चुप तो पहले भी झेलते थे मगर इस क़दर कब थे बे-ज़बाँ हम लोग कब मयस्सर कोई किनारा हो कब समेटेंगे बादबाँ हम लोग बन गए राख अब न-जाने क्यूँ थे कभी शोला-ए-तपाँ हम लोग हम को जाना था किस तरफ़ 'रज़्मी'! और किस सम्त हैं रवाँ हम लोग