आँधियाँ शोर मचाती हैं कि तारी हुई रात आग रौशन हुई सीने में तो जारी हुई रात अजनबी शहर में कुछ ख़ौफ़ सा महसूस हुआ ओढ़ ली मैं ने ख़मोशी से उतारी हुई रात अपने सीने से गुज़रते हुए हर सुब्ह के बाद लौट आती है मिरे जिस्म में हारी हुई रात जाने किस रात के होंटों से पुकारा गया मैं आज भी गूँजती रहती है पुकारी हुई रात बिजलियाँ दौड़ती फिरती हैं रग-ओ-पै में तमाम ज़ेहन में रेंगती रहती है गुज़ारी हुई रात