आने लगी है ज़हर की ख़ुश्बू शुमाल से झलकेगा रंग ख़ून का अस्र-ए-ज़वाल से हैं दर्ज आने वाली रुतों के हिसाब में पत्ते झड़े हुए शजर-ए-माह-ओ-साल से ख़्वाहिश के कारोबार की रस्में बदल गईं मिलते हैं फूल बढ़ के ख़ुद अपने मआ'ल से गुल-दान में सजी हुई कलियों को क्या ख़बर क्या पूछती है बाद-ए-सबा डाल डाल से ज़ाहिर हैं पैरहन की सपेदी से तीन रंग ख़ुश्बू की आबशार-ए-रवाँ सब्ज़ शाल से पर्दों की सरसराहटें बूंदों के रल-तरल खुलता है दर हवा-ए-शब-ए-बर्शगाल से तू ही हुजूम-ए-शहर में पहचान ले मुझे मैं आश्ना नहीं हूँ तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से अब तक हरीफ़-ए-संग समझता था मैं उसे ये आइना तो टूट गया देख भाल से अंधों की अंजुमन में जलाते हो मिशअलें इरशाद कुछ न पाओगे कस्ब-ए-कमाल से