आँख माँगी तो मुझे दे दिया दरिया उस ने होंट माँगे तो दिया प्यास का सहरा उस ने बिस्तर-ए-ख़्वाब पे आराम की ख़्वाहिश थी बहुत तोहफ़ा-ए-दर्द-ए-मोहब्बत से नवाज़ा उस ने ज़िंदगी भर के लिए रिज़्क़ मिरा बंद किया सब्र का दे के मुझे एक निवाला उस ने बात तन्हाई से करने का दिया इज़्न मुझे बज़्म-ए-अहबाब में ख़ामोश बिठाया उस ने चंद साँसों का जहाँ ख़ल्क़ किया मेरे लिए क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ओ-पर दे के उड़ाया उस ने चाहता था कि हर इक फ़न में मुकम्मल हो जाऊँ मैं जो गिरने लगा मुझ को न सँभाला उस ने कू-ब-कू फिरते रहे नख़्ल-ए-जुनूँ मिल न सका शहर-ए-इदराक में बरसों तो घुमाया उस ने मैं ने देखा नहीं एहसास हुआ है मुझ को खोल रक्खा है मिरे घर में दरीचा उस ने वक़्त के साथ हुआ जाता है गहरा ये सवाल क्यों दिखाया था चमकता हुआ तारा उस ने उस के चेहरे की तिलावत से न ग़ाफ़िल हो जाऊँ इस लिए आइना हाथों से गिराया उस ने ज़िंदगी जैसे गुज़रनी थी वो गुज़री 'यावर' गुल-सिफ़त ख़्वाब मुझे रोज़ दिखाया उस ने