अजब थीं मंज़िलें जिन से गुज़ार कर लाई हवा ही बाम से मुझ को उतार कर लाई मिरी सरिश्त की ज़िद ने दिखाया रंग अपना ख़िज़ाँ की मौज को मौज-ए-बहार कर लाई निगाह फाँद गई बाग़-ए-दिल का दरवाज़ा समर भी शाख़-ए-तवज्जोह से पार कर लाई किनारे आ तो गया मैं मगर हयात मिरी हर इक सलीब से मुझ को गुज़ार कर लाई ख़याल-ए-ख़ुश्क ने सैराब होना चाहा तो ये आँख जम्अ कई आबशार कर लाई मह-ओ-नुजूम ने कोशिश बहुत की रोकने की फ़लक से मुझ को मिरी ख़ू उतार कर लाई बिखेरते रहे हम और हवा की ज़िंदा-दिली जब आई जम्अ हमारा ग़ुबार कर लाई मैं जिस को चाहता था ये परिंदा वो तो नहीं ये किस को मेरी तमन्ना शिकार कर लाई हरीस-ए-साअ'त-ए-ख़ुश-दीदा थी सो मेरे लिए गुल-ए-फ़सुर्दा को 'यावर' सँवार कर लाई