आँखें आँसू नहीं रोती हैं जिगर रोते हैं तेरे बीमार के अंदाज़-ओ-हुनर रोते हैं शाद होना तो वो मंज़िल है जिसे पाने को क़ाफ़िले शौक़ के दौरान-ए-सफ़र रोते हैं इक तो ज़ालिम हैं के उन को भी रुलाते हैं उधर हश्र पर ग़ौर किए हम भी इधर रोते हैं हम को छेड़े न कोई ज़ब्त के आलम में हैं हम वर्ना सैलाब गुज़रता है जिधर रोते हैं एक क़तरा न गिरा आँख से उन के 'अमृत' वो जो कहते थे उधर तुम हम इधर रोते हैं