आँखों में चलता हुआ जिस्म है तस्वीर नहीं ऐसे मंज़र की कहीं कोई भी तदबीर नहीं मैं निकलता नहीं वहशत में कभी घर से मिरे मैं समझता हूँ सराए इसे ज़ंजीर नहीं कह तो देती हो कि मैं पहली मोहब्बत हूँ तिरी तेरे कहने में मगर ज़र्रा भी तासीर नहीं बस यही सोच के सपनों को सजाया न कभी मेरे सपनों की यहाँ कोई भी ता'बीर नहीं मैं अगर चाहूँ बदल जाएँ ये हालात मिरे दस्त-ए-तक़दीर के क़ाबू में ये तक़दीर नहीं