आओ कभू तो पास हमारे भी नाज़ से करना सुलूक ख़ूब है अहल-ए-नियाज़ से फिरते हो क्या दरख़्तों के साए में दूर दूर कर लो मुवाफ़क़त किसू बेबर्ग-ओ-साज़ से हिज्राँ में उस के ज़िंदगी करना भला न था कोताही जो न होवे ये उम्र-ए-दराज़ से मानिंद-ए-सुब्हा उक़दे न दिल के कभू खुले जी अपना क्यूँ कि उचटे न रोज़े नमाज़ से करता है छेद छेद हमारा जिगर तमाम वो देखना तिरा मिज़ा-ए-नीम-बाज़ से दिल पर हो इख़्तियार तो हरगिज़ न करिए इश्क़ परहेज़ करिए इस मरज़-ए-जाँ-गुदाज़ से आगे बिछा के नता को लाते थे तेग़ ओ तश्त करते थे यानी ख़ून तो इक इम्तियाज़ से माने हों क्यूँ कि गिर्या-ए-ख़ूनीं के इश्क़ में है रब्त-ए-ख़ास चश्म को इफ़शा-ए-राज़ से शायद शराब-ख़ाने में शब को रहे थे 'मीर' खेले था एक मुग़बचा मोहर-ए-नमाज़ से