आप जाते हैं तो वीरान पड़े रहते हैं देर तक हम यूँही बे-जान पड़े रहते हैं इक तरफ़ ज़ुल्म का बाज़ार सजा रहता है इक तरफ़ मुंसिफ़-ओ-मीज़ान पड़े रहते हैं अज्नबिय्यत है कि बढ़ती ही चली जाती है अपने घर आ के भी मेहमान पड़े रहते हैं रात हर पल हमें मस्लूब किए रखती है सब समझते हैं कि आसान पड़े रहते हैं हर घड़ी एक अदालत सी लगी रहती है हर घड़ी हम पस-ए-ज़िंदान पड़े रहते हैं लोग फूँकों से डरा कर उसे ख़ुश होते हैं जिस के क़दमों तले तूफ़ान पड़े रहते हैं