वीरना-ए-हस्ती में जो कल राह-नुमा था क्यों आज वो अपना ही पता पूछ रहा था मुरझा के बिखर जाना ही तक़दीर थी उस की वो फूल सर-ए-शाख़-ए-तमन्ना जो खिला था था कूचा-ए-दिलदार में इक सेहर का आलम जो मुझ को नज़र आया वो अपना सा लगा था उस ने ही मिरी फ़िक्र को बख़्शी है हरारत इक आग का दरिया जो कभी पार किया था वो बात न करता यही बेहतर था सर-ए-बज़्म इस बर्फ़ से लहजे में तो इक शो'ला छुपा था हैं याद ख़द-ओ-ख़ाल न अब उस का सरापा वो जिस की हथेली पे मिरा नाम लिखा था बे-वज्ह कोई ख़ुद को मिटाता नहीं 'साजिद' मरना है अगर कुफ़्र तो जीना भी सज़ा था