आप को मुझ से ख़फ़ा मुझ से ख़फ़ा देखता हूँ फूटती क्यूँ नहीं आँखें मिरी क्या देखता हूँ रोज़ इस रूह की वीरानियाँ खिल उठती हैं रोज़ इस दश्त में इक आबला-पा देखता हूँ गुल खिलाते हैं नया रोज़ ये रिश्ते-नाते रोज़ ही ख़ून का इक रंग नया देखता हूँ एक सच ये है जो दुनिया को बरतने पे खुला एक सच वो जो किताबों में लिखा देखता हूँ आप हैं सब से जो अज़-राह-ए-ज़रूरत ही मिले और मैं आप में भी ख़ू-ए-वफ़ा देखता हूँ आँख भर कर मैं जिसे देख न पाया था 'नदीम' ख़ुद को उस ख़्वाब के मलबे में दबा देखता हूँ