आप नाराज़ हैं और हम भी तो शर्मिंदा हैं दोनों दिन-रात तड़पते हैं मगर ज़िंदा हैं शाख़-ए-मिज़्गाँ पे उभर आए हैं कुछ नक़्श-ए-जमाल ज़ह्न की ख़ाक में चेहरे कई ताबिंदा हैं शबनमी रात के फूलों ने उतारे हैं लिबास गर्म पोशाक में सूरज के नुमाइंदा हैं दिल की धड़कन भी वही साँस के नग़्मे भी वही हर रग-ओ-रेशे तिरे नाम के साज़िंदा हैं सुर्ख़ आँखों ने जला रक्खे हैं पानी के चराग़ कुछ सितारे भी सर-ए-शाम दरख़्शंदा हैं अम्न की भीक भी मिलती नहीं जीने के लिए जाने किस मुल्क के उजड़े हुए बाशिंदा हैं देखिए हाल-ए-परेशाँ को उलट कर 'उल्फ़त' हम किसी माज़ी के खोए हुए आइंदा हैं