आप रुस्वा हुए ज़माने में इक ज़रा आईना दिखाने में वो किसी से भी डर नहीं सकता हक़ पे चलता है जो ज़माने में तू ने परखा भी है कभी उस को कितने जौहर हैं इस दिवाने में पास रखना है कुछ अना का भी ये क़बाहत है सर झुकाने में क़हर चारों तरफ़ बरसता है इक ज़रा उस के रूठ जाने में ज़ुल्म पर बढ़ के एहतिजाज करो छुप के बैठो न आशियाने में तब्सिरे तज़्किरे सियासत के मीर-ओ-ग़ालिब के आस्ताने में हो न हो ये 'बहार' साज़िश है ज़ेर-ए-लब उन के मुस्कुराने में