सर-कशी वुसअ'त-ओ-पहनाई तक By Ghazal << अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू को भी ... जो ना-शुनीदा रहे लफ़्ज़ आ... >> सर-कशी वुसअ'त-ओ-पहनाई तक क़ुर्बतें सिर्फ़ पज़ीराई तक सत्ह-दर-सत्ह बदन रौशन है कौन पहुँचा तिरी रानाई तक तलछटें तैरती हैं सीमाबी धूप की यूरिशें बीनाई तक पौ फटी रात मगर आँखों में सिलवटें ज़ात की गहराई तक शाम ख़ुशबुएँ नशा और नग़्मा और फिर खो गई बीनाई तक Share on: