आरज़ू थी कि तिरा दहर भी शोहरा होवे तेरी निस्बत से ग़ज़ल हम-सर-ए-ज़ोहरा होवे कौन देता है मुझे ख़्वाब की मशअ'ल हर आन आस बन कर न वही क़ल्ब में ठहरा होवे ये न मेहमान-सरा है न हवस का कूचा दिल में वो शख़्स बसे आ के जो गहरा होवे मौजा-ए-वक़्त में रू-पोश है वो माह-ए-तमाम चाँदनी होवे जहाँ याद का बजरा होवे धुँद ही धुँद नज़र आया जिधर भी देखा मेरी दुनिया मिरे अरमाँ का न चेहरा होवे दिल के आँगन में कोई आ के न जाए वापस इस इलाक़ा में अगर इश्क़ का पहरा होवे उस की तस्वीर में यूँ रंग-ए-अलामत रखियो वो कहीं नूर कहीं फूल का गजरा होवे इतनी तासीर तो फ़रियाद की क़िस्मत हो 'नईम' हाकिम-ए-वक़्त बदल जाए जो बहरा होवे