आरज़ू कब है तिरी अंजुमन-आराई की

आरज़ू कब है तिरी अंजुमन-आराई की
दोस्ती रास मुझे आई है तन्हाई की

कौन है बढ़ के बुझाए जो सुलगते घर को
आँख रखती है ये दुनिया तो तमाशाई की

सुनने वाला नहीं मज़लूम के दिल की चीख़ें
गूँज है आज तिरे शहर में शहनाई की

रंग इस गुलशन-ए-आलम का यहाँ तक बदला
उड़ गई बू-ए-वफ़ा भाई से अब भाई की

रब्त-ए-उल्फ़त न बढ़ा हद से ज़ियादा नादाँ
आगे नौबत कहीं आ जाए न रुस्वाई की

फ़न का ख़ुद आइना फ़नकार हुआ करता है
क्या ज़रूरत है तआ'रुफ़ की शनासाई की

ख़ुद को दाना भी समझना है 'नज़र' नादानी
आजिज़ी अस्ल में पहचान है दानाई की


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