आस के दीप ब-जुज़ तेरे बुझा बैठे हैं दर पे तेरे जो लिए हर्फ़-ए-दुआ बैठे हैं दिल तो पहले ही गया था तिरी आवाज़ के साथ तुझ को देखा है तो आँखें भी गँवा बैठे हैं तुझ से मआ'नी का तक़ाज़ा भी नहीं कर सकते दिल की शाख़ों से भी अल्फ़ाज़ उड़ा बैठे हैं साथ चलने से गुरेज़ाँ हैं इसी वास्ते हम धोका पहले भी किसी शख़्स से खा बैठे हैं अब तो चहकेंगे ख़मोशी में भी लफ़्ज़ों के परिंद तेरे होंटों की मुंडेरों पे जो आ बैठे हैं तुम को आना जो नहीं था तो बता ही देते हम यूँही घर के दर-ओ-बाम सजा बैठे हैं हम भी क्या लोग हैं तज़ईन-ए-चमन की ख़ातिर बेल आकास की पेड़ों पे चढ़ा बैठे हैं हम सुलगते हैं किसी और चिता में 'अहसन' अपने दामन में कोई आग छुपा बैठे हैं