आसाँ है किसी नहर का पत्थर से निकलना आसाँ नहीं उन का दिल-ए-मुज़्तर से निकला दरिया मिरी फ़ितरत है समुंदर है मिरी ज़ात देखे कोई दरिया का समुंदर से निकलना हर चंद कि है शीशा-ओ-साग़र में बहुत कुछ अच्छा है मगर शीशा-ओ-साग़र से निकलना ज़ुल्मत है तिरा नींद की आग़ोश में जाना इक नूर-ए-सहर है तिरा बिस्तर से निकलना आसेब से आसेब हैं दुनिया की नज़र में हमराह मुझे ले के ही तुम घर से निकलना आतिश से तो आतिश को बुझाया नहीं जाता मुमकिन ही नहीं अम्न का ख़ंजर से निकलना औरों की तमन्ना मिरी फ़ितरत नहीं 'शादाँ' रुकना है न घबरा के बराबर से निकलना