पलक मैं अपनी पकड़ न पाई By Ghazal << मुब्तला-ए-हिरास लगती है दिन के सारे कारी लम्हे रो... >> पलक मैं अपनी पकड़ न पाई क़रीब थी सो नज़र न आई जो चुन लिया वो नहीं था चाहा जो चाहिए था न थी रसाई कभी नहीं थी दवा पुरानी नई नई थी कभी शिफ़ाई शजर घना हो गया है दिल का तवील डाली की कर छँटाई Share on: