आसाँ रस्तों में ऐसे भी जान के लाले पड़ जाते हैं चलते चलते अपने जूतों से भी छाले पड़ जाते हैं उस की आस में जगती आँखें आख़िर काली क्यों न पड़ेंगी जलते जलते रात की रात चराग़ भी काले पड़ जाते हैं ग़म की दहशत-गर्दी में भी दिल को खोले रक्खा हम ने वर्ना इस माहौल में शहरों शहरों ताले पड़ जाते हैं शब के काले दामन में ज्यूँ चाँद सितारे आन पड़े हैं मन की मैली झोली में भी ऐसे उजाले पड़ जाते हैं कितनी भी प्यारी हो हर इक शय से जी उक्ता जाता है वक़्त के साथ तो चमकीले ज़ेवर भी काले पड़ जाते हैं दिल मिट्टी का घर ही सही पर रोज़ सफ़ाई करना 'आलम' साफ़ न हों तो काँच के महलों में भी जाले पड़ जाते हैं