आसेब बस गया कोई आ कर मकान में इक नाम लेता रहता है हर वक़्त कान में मुझ को शिगाफ़ करना पड़ा आसमान में कोई ख़ला जब होने लगा दरमियान में दीवार में दरार तो आनी थी एक दिन सर कब तलक पटख़ती ख़मोशी मकान में वो कर्ब-ए-इबतिसाम न तफ़्हीम कर सका एहसास की कमी थी मिरे तर्जुमान में कुछ इस सबब भी दर्द का एहसास था ज़ियाँ गर्द-ए-सफ़र ही रह गई हासिल थकान में कल शब शब-ए-फ़िराक़ की महरूमियाँ न पूछ तम्हीद-ए-हिज्र भी रही शामिल अज़ान में चीख़ों से जाग उट्ठे कई मुंजमिद भँवर कोई दुआ थमी सी रही आसमान में मुद्दत से ख़ुद-कलामी है 'तारा' भी क्या करें जाले से जैसे पड़ने लगे हैं ज़बान में