अश्कों से मेरे रब्त पुराने निकल पड़े पत्थर के इस दयार से शाने निकल पड़े इक संग से जो बढ़ने लगीं आश्नाइयाँ दानिस्ता हम भी ठोकरें खाने निकल पड़े घर वापसी का वक़्त था ढलने लगी थी शाम बिखरे जहाँ जहाँ थे उठाने निकल पड़े फिर ले के आया है उन्हें गलियों में इज़्तिराब हम फिर वहीं पे धूल उड़ाने निकल पड़े ख़ल्वत मिली तो चीख़ पड़ीं बे-ज़बानियाँ सीने में दर्द शोर मचाने निकल पड़े मुज़्तर दिल-ए-तबाह की नादानियाँ तो देख जिस को गँवा के आए थे पाने निकल पड़े बढ़ने लगी ख़लिश तो उमँड आईं बारिशें सहरा में हम भी सब्ज़ा उगाने निकल पड़े कुछ भी अना का ज़ो'म न ख़ुद्दारियों का पास 'तारा' हम उस को ख़ुद ही मनाने निकल पड़े