आशिक़ है जो तुम्हारे रुख़-ए-सुर्ख़-रंग का रहता है उस को नश्शा शराब-ए-फ़रंग का कहते हैं लोग देख तेरे रुख़ पे ख़ाल को क्या हुक्म रोम में है सिपहदार ज़ंग का ऐ रश्क-ए-हूर वुसअत-ए-जन्नत में भी मुझे तुझ बिन है बे-गुमान यक़ीं गोर-ए-तंग का जब से पतंग हूँ मैं तिरे शम्अ-रू का यार मालूम था न तुझ को उड़ाना पतंग का ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न होता तो रखता मैं ऐ सनम अर्श-ए-अज़ीम नाम तुम्हारे पलंग का ऐ सब्ज़-रंग मस्त-ए-मय-ए-इश्क़-ओ-हुस्न तो अफ़यूँ को पूछते नहीं क्या ज़िक्र भंग का ख़ाल-ए-रुख़-ए-निगार हैं चेहरे ख़याल में बीनी दिखाई दे है दोनाली तुफ़ंग का मातम मिरा है यार सिवा हम को बज़्म-ए-नूर साैत-ए-बुका से कम नहीं आवाज़ चंग का आतिश का शेर पढ़ता हूँ अक्सर ब-हस्ब-ए-हाल दिल सैद है वो बहर-ए-सुख़न के नहंग का वो चश्म घात में दिल-ए-पुर-दाग़ के नहीं आहू को है इरादा शिकार-ए-पलंग का नामूस का तो फ़िक्र है 'मातम' अबस यहाँ ये इश्क़ ख़स्म नाम का दुश्मन है नंग का