आशिक़ी के आश्कारे हो चुके हुस्न-ए-यकता के पुकारे हो चुके उठ गया पर्दा जो फ़ी-माबैन था मन्न-ओ-तू के थे इशारे हो चुके है बहार-ए-गुलशन-ए-दुनिया दो रोज़ बुलबुल-ओ-गुल के नज़ारे हो चुके चल दिए उठ कर जहाँ चाहे वहाँ एक रंगी के सहारे हो चुके यास से कह देंगे वक़्त-ए-क़त्ल हम हम तो ऐ प्यारे तुम्हारे हो चुके वासिल-ए-दरिया जो क़तरा हो गया ग़ैरियत के थे पुकारे हो चुके गुलशन-ए-हस्ती में देखी थी बहार औज पर जो थे सितारे हो चुके वर्ता-ए-दरिया का ग़म जाता रहा ग़ोता खाते थे किनारे हो चुके नेक-ओ-बद से तुम को 'मरकज़' क्या ग़रज़ दूर दुश्मन थे तुम्हारे हो चुके