आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को न मिला बहर-ए-मोहब्बत का किनारा मुझ को क्यूँ मिरे क़त्ल को तलवार बरहना की है तेग़-ए-अबरू का तो काफ़ी है इशारा मुझ को ख़ुद तिरे दाम में आया कोई अफ़्सूँ न चला ऐ परी तू ने तो शीशे में उतारा मुझ को मेरे ईसा का ज़रा देखना ए'जाज़-ए-ख़िराम एक ठोकर से मिली उम्र दोबारा मुझ को माने' दौलत-ए-दीदार न हो ऐ गिर्या रुख़-ए-महबूब का करने दे नज़ारा मुझ को दिल में इक गौहर-ए-ख़ूबी की मोहब्बत का है जोश आज-कल भाता है दरिया का किनारा मुझ को दम-दिलासे ही में टाला किए हर रोज़ आख़िर सूखे घाट ऐ गुल-ए-तर ख़ूब उतारा मुझ को नक़्द-ए-जाँ नज़्र करूँ तेरे फिर ऐ क़ातिल-ए-ख़ाल्क़ ज़िंदा कर दे अगर अल्लाह दोबारा मुझ को पहलव-ए-यार को ग़ैरों से जो ख़ाली पाया दिल-ए-बेताब ने क्या क्या न उभारा मुझ को मैं यहाँ मुंतज़िर-ए-वादा रहा लेकिन वो रह गए और कहीं दे के सहारा मुझ को आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही दुश्मनी कर के मिरे दोस्त ने मारा मुझ को फंदे में फँस के मैं उस के न हुआ फिर जाँ-बर तार-ए-गेसू ने तिरे मार उतारा मुझ को उन को सूझा न ज़रा पस्त-ओ-बुलंद उल्फ़त ग़ैर से चिढ़ गए नज़रों से उतारा मुझ को सदमा-ए-सोहबत-ए-अग़्यार न उठेगा कभी और जो ज़ुल्म करो सब हैं गवारा मुझ को शाद उस से हों कि इस क़ातिल-ए-आलम ने ख़ुद आज कह के ओ आशिक़-ए-नाशाद पुकारा मुझ को जाँ दी इश्क़ में उस हूर के मैं ने जो 'क़लक़' क़ब्र में आ के फ़रिश्तों ने उतारा मुझ को