आश्ना जो मज़ा का होता है अपने हक़ में वो काँटे बोता है शैख़-जी एक रोज़ मुझ को 'असर' लगे कहने अबस तू रोता है इन बुतों के लिए ख़ुदा न करे दीन-ओ-दिल यूँ कोई भी खोता है न तुझे दिन को चैन है इक आन एक दम रात को न सोता है मैं कहा ख़ूब सुन के ऐ नादाँ जा मशीख़त को क्यूँ डुबोता है तू है मुल्लाँ तिरी बला जाने आशिक़ी में जो कुछ कि होता है