आसमाँ का न रहा और ज़मीं का न रहा ग़म की जो शाख़ से टूटा वो कहीं का न रहा इतने बे-रंग उजालों से नज़र गुज़री है हौसला आँख को अब ख़्वाब-ए-हसीं का न रहा वक़्त ने सारे भरोसों के शजर काट दिए अब तो साया भी कोई ख़ाक-नशीं का न रहा कौन अब उस को उजड़ने से बचा सकता है हाए वो घर कि जो अपने ही मकीं का न रहा ऐ 'नज़ीर' अपनी शराफ़त है इसी की क़ाइल हाँ का पाबंद हुआ जब तू ''नहीं'' का न रहा