आसमाँ खींच के धरती से मिला सकता है मेरी जानिब वो कभी हाथ बढ़ा सकता है शाह-ज़ादी जो कबूतर है तिरे हाथों में दो क़बीलों को तसादुम से बचा सकता है अपने काँधों से उतारा ही नहीं ज़ाद-ए-सफ़र फिर से हिजरत का मुझे हुक्म भी आ सकता है चाहता है जो मोहब्बत में तरामीम नई मेरी आवाज़ में आवाज़ मिला सकता है बंद कमरे में है तन्हाई कहाँ तक मेरी खिड़कियाँ खोल के देखा भी तो जा सकता कोई कितना भी हो कम-ज़र्फ़-ओ-गुनहगार मगर एक प्यासे को वो पानी तो पिला सकता है इस लिए बा'द में उट्ठा हूँ मैं सब से 'साहिर' वो इशारे से मुझे पास बुला सकता है