आस्तीनों में कोई ख़ंजर नहीं अम्न का फिर भी यहाँ मंज़र नहीं अपने विर्से की सदाक़त चाहिए ख़ून में डूबा हुआ मंज़र नहीं ज़िंदगी मैं ने गुज़ारी है जहाँ भेद अब जा कर खुला वो घर नहीं दुश्मन-ए-जाँ है तो बस मेरी अना दुश्मनान-ए-वक़्त का लश्कर नहीं गर यक़ीं की मशअलें हाथों में हों रात की तारीकियों से डर नहीं दोस्ती में हिज्र तो मंज़ूर है दोस्ती के नाम पर ख़ंजर नहीं लोग गूँगे हो गए 'आदिल-हयात' रूह जैसे जिस्म के अंदर नहीं