आँसू को गुल नाब समझ कर नूर उजाला करते थे रात की रात में दो तारों का चाँद बनाया करते थे गहरे भँवर उस की आँखों का पानी भरते रहते थे उस का लम्स चुरा कर दरिया मौज में आया करते थे सर पर छतनारी रूहों के ताज भड़कते रहते थे सब्ज़ उजाले भर कर सीनों को फैलाया करते थे चाँद उठा कर ले जाते थे दिल की रुपहली कश्ती में पिछले पहर की सरदाबी से आँख को ताज़ा करते थे नील मुसफ़्फ़ा आँखों से तकते थे जिस्म की चाँदनी को फुलवारी पे नूर की पर्दे काँच के ताना करते थे