आते ही यहाँ चोट नई खाई है अक्सर महफ़िल में तिरी मैं ने सज़ा पाई है अक्सर उलझा हूँ तो ऐ दोस्त उलझता ही गया हूँ गुत्थी ग़म-ए-दौराँ की भी सुलझाई है अक्सर जज़्बात का तूफ़ान मिरे दिल में उठा है वो साँस जो धड़कन के क़रीं आई है अक्सर आया न यक़ीं उस को किसी बात पे मेरी समझाने की जो बात थी समझाई है अक्सर काँटा हमें समझा किए गो अहल-ए-गुलिस्ताँ हम ने भी बहारों में जगह पाई है अक्सर देखा है जब इस चाँद को ज़ुल्फ़ों की घटा में सीने में मिरे बर्क़ सी लहराई है अक्सर नादाँ हैं मोहब्बत में जो दीवाने को समझाएँ जो बात मिरे दिल ने भी समझाई है अक्सर ताकीद तुम्हारी है कोई तुम को न छेड़े हम ने भी 'कमल' बात ये दोहराई है अक्सर