आरज़ू मौत का सामान हुई जाती है ज़ीस्त मुश्किल थी जो आसान हुई जाती है मौत से मेरी जो पहचान हुई जाती है ज़िंदगी और भी आसान हुई जाती है ज़ौक़-ए-नज़ारा से ख़ुद जिस ने नवाज़ा था मुझे वो नज़र मुझ से अब अंजान हुई जाती है जब से गुलशन में सजाया है नशेमन हम ने बर्क़ कुछ और परेशान हुई जाती है शायरी इस क़दर अर्ज़ां है ब-फ़ैज़-ए-ग़ुर्बत हर ग़ज़ल हासिल-ए-दीवान हुई जाती है