आती है फ़ुग़ाँ लब पे मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर से खुल जाए न ये भेद कहीं तेरी नज़र से रक्खा है तिरे ग़म को हमेशा तर-ओ-ताज़ा टपका लहू आँखों से कभी ज़ख़्म-ए-जिगर से ले छोड़ दिया शहर तिरा कहने पे तेरे अब हो गए हम दूर बहुत तेरे नगर से दुनिया पे हुआ राज़ मोहब्बत का यूँ इफ़्शा तड़पाया बहुत तू ने उठाया हमें दर से मंसूब हैं तुझ से जो मोहब्बत के फ़साने वक़्त आया तो लिक्खेंगे कभी ख़ून-ए-जिगर से सीने में कहीं रुकता है सैलाब-ए-जुनूँ-ख़ेज़ दिल ख़ून हुआ मेरा मोहब्बत के असर से सैलाब-ए-हवादिस भी हुआ शर्म से पानी आँखों से मिरी अश्क कुछ इस शान से बरसे