इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म मुब्तला-ए-सद-आरज़ू हैं हम दिल भी लौह-ओ-क़लम का हम-सर है दास्तानें हैं कितनी दिल पे रक़म अज़्मत-ए-रफ़्तगाँ है नज़रों में अपने माज़ी को ढूँडते हैं हम पारा पारा है ख़ुद जुनूँ लेकिन फ़िक्र-ए-इंसाँ इसी से है मोहकम भीगी भीगी है हर किरन उन की है सितारों की आँख भी पुर-नम यूँ न होती सहर की रुस्वाई काश खुलता न रौशनी का भरम हम हैं और एहतिराम-ए-हुस्न-ए-वफ़ा वो हैं और एहतिमाम-ए-मश्क़-ए-सितम कमतर उस को न कहिए 'यज़्दानी' आदमी ख़ुद है जान-ए-दो-आलम