आतिश-ए-गुल हूँ निगाहों में शरर रखती हूँ अपने अंदाज़ मैं दुनिया से दिगर रखती हूँ ख़ाक जिस दिन से उड़ाई है हवाओं ने मिरी मौसमों के भी तक़ाज़ों पे नज़र रखती हूँ ग़ैर-मुमकिन है कि वो मुझ को भुला देंगे कभी जिस्म की बात नहीं दिल पे असर रखती हूँ मुझ तक आने ही नहीं देता है शामत कोई सहन में अपने जो इक बूढ़ा शजर रखती हूँ दश्त लिपटा है मिरे पाँव से गुलशन के लिए आबलों में भी बहारों का हुनर रखती हूँ शम्स आता है जगाने को मुझे खिड़की से अपनी पलकों पे मैं इमकान-ए-सहर रखती हूँ नूर छलकेगा ना क्यों 'साहिबा' ग़ज़लों से मिरी मैं कहीं अश्क कहीं ख़ून-ए-जिगर रखती हूँ