चराग़-ए-आरज़ू है और मैं हूँ वफ़ा की जुस्तुजू है और मैं हूँ वो चुप है और मैं ख़ामोश लेकिन अजब सी गुफ़्तुगू है और मैं हूँ फ़लक का शम्स तो बस इक गुमाँ है मेरे दिल का लहू है और मैं हूँ फ़क़त दो लोग हैं सारे जहाँ में ऐ मेरे यार तू है और मैं हूँ बहुत ही दूर वो रहता है फिर भी नज़र के रू-ब-रू है और मैं हूँ नहीं होता वो गर हम भी न होते वही तो कू-ब-कू है और मैं हूँ उसी का अक्स है सारे जहाँ में वो मेरे चार सू है और मैं हूँ कहाँ तन्हा हूँ जीवन के सफ़र में अना है ज़िद है ख़ू है और मैं हूँ मुझे लगता है वो मेरे ही जैसा कोई तो हू-ब-हू है और मैं हूँ तुम्हारे इश्क़ के गुलशन में साहिब बड़ी रंगत है बू है और मैं हूँ सफ़र है 'साहिबा' तख़्लीक़ का ये ग़ज़ल की आबरू है और मैं हूँ