आतिश-ए-ज़ख़्म से जब सीना पिघलता था मिरा मुँह से आवाज़ नहीं ख़ून निकलता था मिरा सुर्ख़ अंगारे दहकते थे मिरी आँखों में तेरी तौहीन पे जब रंग बदलता था मिरा इतनी मानूस थी एहसास की लौ धूप के साथ जिस्म सूरज के उतर जाने से जलता था मिरा कम न थी मौत की रफ़्तार से रफ़्तार-ए-सफ़र साँस रुक जाते थे जब क़ाफ़िला चलता था मिरा ग़ैर आबाद मसाफ़त में ग़नीमत थी ज़मीं कारवाँ गर्द की ख़ूराक पे पलता था मिरा दौड़ते दौड़ते मैदान में प्यासों के लिए पाँव के तलवों से एहसास निकलता था मिरा हब्स अंदर की निकलती तो हवा रुक जाती साँस मुश्किल से ये माहौल निगलता था मिरा वहशती राहगुज़र तय न हुई मुझ से 'अली' जिस्म तो जिस्म है साया भी दहलता था मिरा