लब-ए-दरिया हूँ लेकिन तिश्नगी महसूस करता हूँ मैं अपने घर में ख़ुद को अजनबी महसूस करता हूँ ख़ुदा जाने वुफ़ूर-ए-शौक़ का ये कैसा आलम है निशात-ओ-ग़म में यकसाँ बे-ख़ुदी महसूस करता हूँ किसी से बे-तकल्लुफ़ गुफ़्तुगू होती है महफ़िल में मगर ख़ल्वत में लफ़्ज़ों की कमी महसूस करता हूँ कभी मुख़्लिस कभी हासिद कभी मय-कश कभी ज़ाहिद हमा-सूरत मैं ख़ुद को आदमी महसूस करता हूँ तेरे अफ़्कार की गहराइयों का कौन है मुनकिर मगर 'अफ़ज़ल' मैं तेरी शाइरी महसूस करता हूँ