आवाज़ दे रहा हूँ ख़ुद अपनी क़ज़ा को मैं किस तौर देखता हूँ तिरी चश्म-ए-वा को मैं अल्लाह रे हुस्न-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा कि इन दिनों हर वक़्त देखता हूँ तिरे नक़्श-ए-पा को मैं इस कश्मकश में ख़त्म हुई राह-ए-ज़िंदगी तेरे करम को याद करूँ या जफ़ा को मैं हावी है काएनात की वुसअ'त पर अज़्म-ए-दिल अब जुस्तुजू है पाऊँ नए इक समा को मैं किस को ख़बर 'किरन' है कहाँ मंज़िल-ए-हयात मुश्किल समझ रहा हूँ अभी इब्तिदा को मैं