आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को कब तक मैं छुपा रखता इस ख़्वाब-ख़ज़ाने को देखा नहीं रुख़ करते जिस तर्फ़ ज़माने को जी चाहता है अक्सर उस सम्त ही जाने को ये शग़्ल-ए-ज़बानी भी बे-सर्फ़ा नहीं आख़िर सौ बात बनाता हूँ इक बात बनाने को इस कुंज-ए-तबीअत की मुमकिन है हवा बदले झोंका कोई आ जाए पत्ते ही उड़ाने को राज़ी न हुआ मैं भी मानूस मनाज़िर पर तय्यार न था वो भी कुछ और दिखाने को जैसा कि समझते हो वैसा तो नहीं कुछ भी ये सारा तमाशा है इक वहम मिटाने को