आया न आब-ए-रफ़्ता कभी जूएबार में कैसे क़रार आए दिल-ए-बे-क़रार में हंगाम-ए-सुब्ह-ए-ईद में भी वो मज़ा कहाँ जो लुत्फ़ मिल गया है शब-ए-इंतिज़ार में बिजली गिरी थी कब ये किसी को ख़बर नहीं अब तक चमन में आग लगी है बहार में जब तक बिखर न जाए तिरी ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं निकहत कहाँ से आए नसीम-ए-बहार में फ़ुर्सत मिली है दिल को नशेमन की फ़िक्र से फिर बर्क़ कूँदने लगी हर शाख़-सार में फिर किस की याद आई कि 'अनवार' आज-कल मोती पिरो रहा हूँ गरेबाँ के हार में