आज़ार ही अब कोई मकानों पे गिरेगा लगता है कि ये बार भी शानों पे गिरेगा इस बार कोई तीर कमानों में नहीं है इस बार मगर जिस्म निशानों पे गिरेगा इक चीख़ से गूँजेंगी कई और भी सदियाँ आवाज़ का पत्थर है ज़मानों पे गिरेगा सब देखते रह जाएँगे ये तीर-ब-कफ़ लोग जब जा के परिंदा ये चटानों पे गिरेगा इक शख़्स जो ख़्वाबों में भी साए की तरह है कब हर्फ़-ए-यक़ीं बन के गुमानों पे गिरेगा हम ख़ेमा-ए-अश्जार से गुज़रेंगे बहर-कैफ़ ग़म सूरत-ए-बर्फ़ाब मचानों पे गिरेगा जब तक कि तकल्लुम में नहीं ताक़त-ए-गुफ़्तार क्या हर्फ़-ए-तलब कोई ज़बानों पे गिरेगा ख़्वाह औज-ए-फ़लक तक ही चला जाए ये सूरज थक कर इसी धरती के दहानों पे गिरेगा तुम फूल बरसने की 'कफ़ील' आस तो रखना क्या संग सदा आईना-ख़ानों पे गिरेगा