बर्ग और तरह के हैं समर और तरह के इस बार हैं गुलशन के शजर और तरह के हर चंद वही कूज़ा-गरी है सर-ए-बाज़ार दरकार हैं अब दस्त-ए-हुनर और तरह के आसान नहीं अब भी तिरा जादा-ए-दुश्वार दरपेश हैं अब हम को सफ़र और तरह के वो लोग जो चलते हैं रह-ए-आम से मुतज़ाद मिलते हैं उन्हें राहगुज़र और तरह के उफ़्ताद में यकसाँ नहीं पाताल किसी की हैं सब के लिए उस के भँवर और तरह के आग़ाज़ में कुछ और थी अंजाम की उम्मीद आसार हैं अब पेश-ए-नज़र और तरह के तक़्वीम-ए-तहय्युर में 'कफ़ील' आ तो गए हम गर्दिश में हैं अब शाम-ओ-सहर और तरह के