अब आए हो सदा सुन कर गजर की कहो जी शब कहाँ तुम ने बसर की सहर को दफ़्न कर के जाइएगा मुसीबत और है इक रात-भर की क़फ़स में बंद करना था जो तक़दीर नदामत क्यूँ मुझे दी बाल-ओ-पर की गुज़र जाएगी जो गुज़रेगी हम पर चलो जी राह लो तुम अपने घर की अभी तू जान ले ले ऐ ग़म-ए-इश्क़ मुसीबत कौन उठाए उम्र-भर की ख़ुदा के वास्ते यारो सँभालो कि फिर शिद्दत हुई दर्द-ए-जिगर की तरश्शोह आँसुओं का हो रहा है घटा उमडी हुई है चश्म-ए-तर की न बोलेंगे तुम्हारे ख़ौफ़ से हम हिलाएँगे मगर ज़ंजीर दर की न आना तुम इजाज़त माँगने को न दिखलाना हमें सूरत सफ़र की कोई दम का बखेड़ा रह गया है जिगर तक बर्छियाँ पहुँचें नज़र की हमें फ़स्साद का मुँह देखना है उठानी है मुसीबत नेश्तर की हबाब-आसा है लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी हक़ीक़त कुछ नहीं होती बशर की 'नसीम' अब दिल कताँ की तरह है चाक मोहब्बत में किसी रश्क-ए-क़मर की