अब्र साँ हर-चंद रक्खा चश्म को पुर-आब हम कर सके पर किश्त उल्फ़त का नहीं शादाब हम हिज्र की आतिश ने ऐसा क़ुर्ब-ए-दिल पैदा किया बे-क़राराना तड़पते अब हैं जूँ सीमाब हम छा गईं ज़ुल्फ़ें किसी मुखड़े पे जूँ आकास पूँ ख़ुद-बख़ुद खाते हैं पेच-ओ-ताब जूँ लैलाब हम गर्द-बाद-आसा पड़े फिरते हैं बाग़-ओ-राग़ में मस्कन-ओ-मावा कहाँ रखते हैं दर-यक-बाब हम देख लेने दे तू अपने कान का बूंदा हमें फिर कहाँ पावेंगे ज़ालिम ये दुर-ए-नायाब हम ज़िंदगी फुस्ला के लाई याँ हज़ार अफ़्सोस आह फँस गए बे-तरह इस दुनिया के दर ख़ुल्लाब हम याँ है फ़िक्र-ए-मईशत वाँ है अंदेशा मआ'द हैं ब-गिर्दाब-ए-ग़म-ए-दुनिया-ए-दूँ ग़र्क़ाब हम मुन्कशिफ़ होती हक़ीक़त मर्ग गर रोज़-ए-अलस्त हरगिज़ ऐ दहर अज़ अदम करते नहीं पेशाब हम मत कर 'अफ़रीदी' को इस मस्लख़ में पाबंद आख़िरश ज़ब्ह हो जावेंगे तेरे हाथ ऐ क़स्साब हम