अब आँखों में ख़ूँ दम-ब-दम देखते हैं न पूछो जो कुछ रंग हम देखते हैं जो बे-अख़्तियारी यही है तो क़ासिद हमीं आ के उस के क़दम देखते हैं गहे दाग़ रहता है दिल गा जिगर ख़ूँ उन आँखों से क्या क्या सितम देखते हैं अगर जान आँखों में उस बिन है तो हम अभी और भी कोई दम देखते हैं लिखें हाल क्या उस को हैरत से हम तो गहे काग़ज़ ओ गह क़लम देखते हैं वफ़ा-पेशगी क़ैस तक थी भी कुछ कुछ अब उस तौर के लोग कम देखते हैं कहाँ तक भला रोओगे 'मीर'-साहिब अब आँखों के गिर्द इक वरम देखते हैं