अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें उसे भुला के ग़म-ए-ज़िंदगी का नाम करें फ़रेब खा के उन आँखों का कब तलक ऐ दिल शराब-ए-ख़ाम पिएँ रक़्स-ए-ना-तमाम करें ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें न माँगूँ बादा-ए-गुल-गूँ से भीक मस्ती की अगर तिरे लब-ए-लालीं मिरा ये काम करें न देखें दैर ओ हरम सू-ए-रह-रवान-ए-हयात ये क़ाफ़िले तो न जाने कहाँ क़याम करें हैं इस कशाकश-ए-पैहम में ज़िंदगी के मज़े फिर एक बार कोई सई-ए-ना-तमाम करें सिखाएँ दस्त-ए-तलब को अदा-ए-बेबाकी पयाम-ए-ज़ेर-लबी को सला-ए-आम करें ग़ुलाम रह चुके तोड़ें ये बंद-ए-रुस्वाई कुछ अपने बाज़ू-ए-मेहनत का एहतिराम करें ज़मीं को मिल के सँवारें मिसाल-ए-रू-ए-निगार रुख़-ए-निगार से रौशन चराग़-ए-बाम करें फिर उठ के गर्म करें कारोबार-ए-ज़ुल्फ़-ओ-जुनूँ फिर अपने साथ उसे भी असीर-ए-दाम करें मिरी निगाह में है अर्ज़-ए-मास्को 'मजरूह' वो सरज़मीं कि सितारे जिसे सलाम करें